Lyrics
Crafting Cinematic Lyrics
Having created over 100 original cinematic lyrics, I specialize in weaving evocative stories that enhance film narratives. Each piece is designed to align with a film’s tone, characters, and themes, ensuring emotional authenticity. These lyrics are versatile, suitable for genres ranging from sweeping romances to gritty dramas, and crafted to captivate global audiences.
While I cannot share these lyrics publicly, they are available for collaboration with film production houses, music companies, or artists seeking to elevate their projects. My work aims to transform melodies into unforgettable stories that resonate on screen and beyond.
Collaboration Opportunities
If you’re a filmmaker, music producer, or creative looking to bring poetic storytelling to your next project, I’d love to collaborate. My lyrical expertise can help craft songs that enhance your narrative and leave a lasting impact. Please reach out to discuss how we can bring these cinematic stories to life.
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Lyric, Editing & Creative Direction: Firoz Ahmad Firoz
Music & Vocals: Generative AI
©2024 Firoz Ahmad Firoz, PicturesMagic,
All Rights Reserved
शनाख़्त
फ़िरोज़ अहमद फ़िरोज़
एक दिन मैं ख़्वाब से बेदार हुआ
मैं रंगों का पीछा कर रहा था
मैं तितली था, यह भी लगा
के तितली मेरे होने का ख़्वाब देख रही है
किसी ने कहा, हम ने सुना
हम ने कहा, किसी ने सुना
अहद वह ख़ुद को फ़रेब दे
सुना, कहा, अनसुना कर दे
बेशतर लोग दूसरे लोग हैं
किसी और की राय हैं उनके ख़्यालात
एक नक़ल है उनकी ज़िंदगी
एक इक़्तिबास हैं उनके जज़्बात
किसी ने कहा, हम ने सुना
सुन कर अनसुना कर दिया
मगर यह अदब ओ ख़्याल रहे
इन्ही हैरत-ज़दा आँखों से देखे हैं
मुझसे बेहतर कुछ ऐसे भी हैं जहाँ में
जब मैंने पहला लफ़्ज़ बोला
माँ की आवाज़ की पैरवी की
जब पहली बार पतंग उड़ाई
उड़ती पतंग की डोर किसी ने पकड़ाई
पहली बार खाना पकाया
तो मैंने एक नुस्ख़े पर अमल किया
मेरा इस जहाँ में बतौर इंसाँ
ज़िंदगी गुज़ारने का यह पहला मौक़ा है
अगर कामयाब मॉडल की तक़लीद करूँ
तो मेरे लिए यह अक़्लमंदी होगी
एक दिन मैं ख़्वाब से बेदार हुआ
मैं रंगों का पीछा कर रहा था
मैं तितली था, यह भी लगा
के तितली मेरे होने का ख़्वाब देख रही है
आप जो भी हैं
आप के लिए आप
मेरे लिए मेरे जैसा
शय की ज़ात में होने का मे’यार
इंसान की मख़सूस शिनाख़्त
मगर वह जो वह ख़ुद बनाता है
किसी न किसी तरह की शिनाख़्त
एक कामयाब मॉडल की तक़लीद से
किसी ने कहा, हम ने सुना
हम ने कहा, किसी ने सुना
इनफ़रादी, पैदाइशी, नस्ली
हक़ीक़ी शिनाख़्त से परे
रब को हक़ीक़ी रब
वज़ीरों को सच्चे वज़ीर
बाप को सच्चे बाप
और बेटे को सच्चे बेटे होने दो
कारख़ाना–ए–कुदरत का मॉडल बेमिसाल है
उस जैसा बनने की कोशिश लाजवाब
एक मख़सूस शिनाख़्त तलाश करना
ख़ुद को सैयाल और ग़ैर मुतअय्यन करना है
ख़ुद से सच्चे होने की तलब
बहैसियत फ़र्द, बिरादरी, रंग ओ नस्ल
बतौर इबादत-ख़ाने, क़ौमें, शहरों
कुदरत से ज़बरदस्ती करने का अमल है
उस का नतीजा यह होगा
के दुनिया फ़साद से भरी हुई
और तरक़्क़ी से ख़ाली होगी
शायद अब वक़्त आ गया है
के मैं अपने अंदर देखूँ
टूटे हुए आईनों को चुन कर मिलाऊँ, एक ख़्वाब देखूँ
मैं रंगों का पीछा कर रहा हूँ
मैं तितली हूँ,
यह देखूँ
के तितली मेरे होने का ख़्वाब देख रही है
हमारी फड़फड़ाहट हमें बताती है
सचाई सिर्फ़ अपने आईने में नहीं
बल्कि दूसरों के रुख़्सार में भी है
– फ़िरोज़ अहमद फ़िरोज़
Lyrics By Firoz Ahmad Firoz
2 September 2025, Bengaluru
All Rights Reserved 2025.
आख़िरी बोसा
फ़िरोज़ अहमद फ़िरोज़
(सोलो)
कल बेटी के बाक़ी–माँदा वुजूद पर एक माँ ने,
आखिरी बोसा दिया और रो पड़ी थी इधर में।
(कोरस 1)
भूख बनी मुरव्वजा हथियार जंग, इधर में,
भूख भी क़ातिल है बच्चों की, इधर
में।
दिन है सियाह, शब भूखे सोती, इधर में,
बुझे नहीं हैं, चिराग़ अभी बुझे नहीं हैं, इधर में।
एक सुबह है जो हुई नहीं है बरसों से, इधर में,
रास्ते बंद हैं सब, कूचा–ए–क़ातिल के सिवा, इधर में।
(इंट्रो)
जलील–उल–कद्र पैग़म्बर इब्राहिम की सरज़मीं पर,
जुर्म की फ़ेहरिस्त लंबी है क़ातिल की, इधर में।
यहाँ कोई फ़रिश्ता नहीं आता, बस एक ख़ला है,
रूह–ओ–जाँ में सोजंदा तर दागों के हैं थाले इतने,
दोजख भी पिघल जाएगी गर साँस लेगी, इधर में।
नौख़ेज़ जिंदगी के लम्हात गिनती के,
इतने मुख़्तसर ख़्वाब, मगर दर्द ये लंबा, इधर में।
शौक़–ए–हयात देख, आँखों का इंतज़ार देख,
अकेले थक जाओगे, तुम देखोगे मंज़र, इधर में।
जब ख़ुराक नस्लकुशी का हथियार बन जाए,
ख़ामोशी हमारी आख़िर किस बात की निशानी है।
(सोलो)
कल बेटी के बाक़ी–माँदा वुजूद पर एक माँ ने,
आखिरी बोसा दिया और रो पड़ी थी इधर में
(वर्स 1)
जुम्मा को हॉस्पिटल लाई गई ज़ैनब,
मगर पहले ही जान जा चुकी थी।
मिकी माउस की रंगीन क़मीज़ अहतियात से,
मुर्दा ख़ाने के हाथों ने खोली, इधर में।
आँखें खुली थीं, गहराइयों में डूबी,
सवाल करतीं, “हमने क्या किया था?
किस क़सूर की ये सज़ा मिली?”
पतली टाँगों पर हड्डियाँ उभरी थीं,
टख़ने इतने कि अंगूठे से भी कम,
छाती पर पसलियों की गिनती थी, इधर में।
इसरा अबु हलीब के लख़्त–ए–जिगर का वजन,
उस वक्त जन्म के दिन से भी कम था।
माँ ने कहा, “जन्म के वक़्त तीन किलो,
मगर मरते वक़्त दो से भी कम।”
डॉक्टर ने कहा, “भूख की इंतहा,
ये मौत नहीं, इंसानियत का ख़ून है, इधर में।”
भारत भी ज़ैनब के जनाजे में,
डेढ़ सौ मुल्कों संग शामिल था।
ज़ैनब रेत पर रखी गई, नमाज़ के लिए इमाम के आगे,
कफ़न इमाम के कदमों से भी छोटा था।
हाथ उठा के इमाम के साथ सबने फिर दुआ की।
(सोलो)
कल बेटी के बाक़ी–माँदा वुजूद पर एक माँ ने,
आखिरी बोसा दिया और रो पड़ी थी इधर में।
(कोरस 2)
भूख बनी मुरव्वजा हथियार जंग, इधर में,
भूख भी क़ातिल है बच्चों की, इधर में।
दिन है सियाह, शब भूखे सोती, इधर में,
बुझे नहीं हैं, चिराग़ अभी बुझे नहीं हैं, इधर मैं।
एक सुबह है जो हुई नहीं है बरसों से, इधर मैं,
रास्ते बंद हैं सब, कूचा–ए–क़ातिल के सिवा, इधर में।
(वर्स 2)
ये नहीं जंग, एक नस्लकुशी है,
दुनिया को कुछ गुस्सा आया है, मगर,
खामोश तमाशाई बहुत हैं जहाँ,
वक्त गवाह है, तारीख़ बताएगी।
एहद–ए–आलम था कि फिर होलोकॉस्ट नहीं होगा,
आज वही दास्ताँ दोहराई जा रही है, इधर में।
कुछ ज़िंदा दिल मुल्कों ने जिंदगी बचाने के लिए,
राहत जरूर बरसाई है आसमाँ से।
आज मुद्दत के बाद कुछ नसीब हुआ लोगों को,
कई पेटों में दो रोटियाँ गईं,
बिमारों को कुछ दवा मिली,
मगर ये राहत काफ़ी नहीं थी अब भी।
मासूम चाँद से चेहरों पर भूख का साया था,
बोसीदा टेंटों के आशियानों में, टूटी हुई गोदियाँ थीं,
ओढ़ी हुई बोसीदा सी शालों में,
बिखरे खाली बर्तनों को ताकती आँखें,
कभी–कभी आसमाँ की तरफ भी देखती हैं।
राशन की कतार में खड़ी मजबूर भूखी–प्यासी जानें,
नस्लकुशी की भूखी बंदूकों का शिकार होती, इधर में।
भूख ने चुरा ली जिंदगी की किताब सारी,
मासूम खामोशी रंग लाएगी, इधर में।
(ब्रिज)
माना कि दिल–ओ–दिमाग़ के हाकिम हैं आप,
भूख और जंग ख़ल्क़ पर थोपने का हुनर जानते हैं।
मासूम ज़ैनब की साँसें रोकने वालों, अब
ये कहानी तुम्हारे दिल–ओ–दिमाग़ तक पहुँचेगी।
ए अहल–ए–सियासत–ओ–तिजारत, ख़याल रहे,
तुम्हारा वजूद है इंसानों के होने से।
भूख और प्यास से या मौत से अब न डराओगे,
बशर जंग करने निकली है, भूख और नफ़रत के खिलाफ।
भूख को औजार बनाने से दूरी बना के रखना,
के ख़ल्क़ को जंग–ओ–जदल के चलन से नफ़रत है।
ये ज़िन्दगी है, यहाँ सब रवाँ होते हैं,
वक़्त हर मुश्किल का कोई हल ज़रूर देता है।
एक सुबह है जो हुई नहीं है बरसों से यहाँ,
शब तवील सही, हर रात के बाद एक सुबह आती है।
(आउट्रो)
जंग–ओ–जदल के होंटों पर, इधर में,
अमन–ओ सकूँ के बोसे की लज़्ज़त दर्ज होगी।
एक सुबह है जो हुई नहीं है बरसों से, इधर में,
मुस्तक़बिल के हर एक ख़ौफ़ से आज़ाद, अब एक नई सुबह होगी।
काले क़फ़स की तीलियों को बिखरने का मंज़र,
मौसम–ए–गुल के अनमोल और बे–अंत लम्हा जहाँ देखेगा।
(कोरस)
भूख बनी मुरव्वजा हथियार जंग, इधर में,
भूख भी क़ातिल है बच्चों की, इधर में।
दिन है सियाह, शब भूखे सोती, इधर में,
बुझे नहीं हैं, चिराग़ अभी बुझे नहीं हैं, इधर में।
एक सुबह है जो हुई नहीं है बरसों से, इधर में,
रास्ते बंद हैं सब, कूचा–ए–क़ातिल के सिवा, इधर में।
(सोलो)
कल बेटी के बाक़ी–माँदा वुजूद पर एक माँ ने,
आखिरी बोसा दिया और रो पड़ी थी इधर में
– फ़िरोज़ अहमद फ़िरोज़
Lyrics By Firoz Ahmad Firoz
August 2025, Bengaluru
All Rights Reserved 2025.
मैं कौन था?
फ़िरोज़ अहमद फ़िरोज़
(Chorus)
मैं था, तो मैं था,
मगर अब सवाल है —
मैं कौन था?
एक ख़्वाब, जो ख़ुद को सच समझता है।
(Intro)
ख़ुद तो दरिया में नाख़ुदा था मगर,
तूफान सामने कोई किनारा नहीं था।
लम्हा ब लम्हा जो पयकर बना,
कायनात की नब्ज़ पर लिखा क़िस्सा बना।
ज़ात की तह में ज़र्रे खिलने लगे,
अफ़साने और हक़िक़त ख्वाबों की तरह जुड़ने लगे।
रौशनी में तहलील हुआ वजूद–ए–इंसान,
जहां न सिम्त, न फ़ासला, न कोई निशान।
फ़रेब-ए–कायनात — एक ख़ाम तसव्वुर,
जहाँ पहुँचने की ख़्वाहिश में कितने जहाँ गुज़रेंगें
मगर धड़कनों में बस गया दवाम का शऊर।
ख़याल से जन्म लेती कायनाती जुबान,
ख़ामोश गलैक्सियों में बुनती है नग़मा–ए–जां।
(Verse 1)
दिमाग़ है — एक मुकम्मल ख़ला,
जहां रौशनी भी अपनी मा’नविय्यत
खो देती है।
हज़ारों ख़लानवर्द साज़–ए–तख़य्युल बजाते हैं,
ख़्वाहिशों की धुन,
नाम, रूप, इश्क़ — सब सैयारे बन के घूमते हैं।
कभी तलब काली तवानाई सी खींच लेती है,
कभी आरज़ू ज़र्रे की मानिंद
नई गलैक्सी को जन्म देती है।
कोई ज़मीं के बोझ में
रोटी को ढूंढता है,
कोई फ़िज़ाओं में मुहब्बत,
तन्हाई सितारों के बीच घोलता है।
ख़्वाब, तमन्नाएं, लफ़्ज़ –ए-हुस्न, असबी ख़लिय्यों में रौशनी की नहरों की तरह बहते हैं।
(Chorus)
मैं था, तो मैं था,
मगर अब सवाल है —
मैं कौन था?
एक ख़्वाब, जो ख़ुद को सच समझता है।
(Verse 2)
हर आवाज ख़ला से कहती है,
“मैं हूं, मैं हूं,”
पर वो भी एक कहानी है।
अगर “मैं” नहीं हूं,
तो कौन है जो सोच रहा है?
कौन है जो देख रहा है,
कौन है जो सुन रहा है?
आसमान सा वजूद,
जिस पर बादल आते–जाते हैं।
महताब व आफ़ताब रोशन होते हैं,
पर आसमान कभी नहीं बदलता।
कोरे काग़ज़ के सफ़हे सा,
ये सब कहानियां सुनता और सुनाता है।
(Bridge)
जब “मैं” का बोझ उतर जाएगा,
हर सांस में हक़ीक़त उतरेगी।
न फ़ख़्र बाक़ी, न शर्मिंदगी,
बस लम्हा — बस सुकून,
बस वजूद, बेनाम मगर मुकम्मल।
(Chorus)
मैं नहीं हूं, मगर हूं,
मैं नहीं हूं, मगर सब कुछ हूं।
एक ख़्वाब, मगर इस ख़्वाब में
वो हक़ीक़त है जो बेनाम है,
मगर हर दिल उसे पहचानता है।
(Outro)
तुम हो — न कोई ज़ात,
बल्कि वही ख़ला,
वही ख़लानवर्द,
जो सब सदा सुन लेता है।
मैं था, तो मैं था,
मगर अब सवाल है —
मैं कौन था?
एक ख़्वाब, जो खुद को सच समझता है।
Lyrics By Firoz Ahmad Firoz
August 28, 2025, 4.28 PM
Bengaluru, All Rights Reserved 2025.
एक फ़ोन कॉल
फ़िरोज़ अहमद फ़िरोज़
वह तारीख़–साज़ दिन था,
रौशन सुबह एक दिन एक घंटी बजी प्यारी सी
टेलीफोन इल्म–ए–इंसां, जहाँ का सहारा, प्यारा बना
दिल से दिल का हुआ सफ़र आसां, ख़ुशगवार
मुल्कों में, इंसानों में मोहब्बत बढ़ी
यह साइंस का करिश्मा, इंसानियत का गीत बना
टेलीफोन, तूने जोड़ा है सारा जहां
तेरी मासूम आवाज़, हमारी आवाज़ बनी
छोटी बच्चियाँ भी, तुझसे बातें करतीं
वह तारीख़–साज़ दिन था,
रौशन सुबह एक दिन एक घंटी बजी प्यारी सी
फ़ोन की घंटी बजती है
फ़ोन उठाया जाता है
हिंद: (सिसकियाँ भरती हुई, घबराई हुई आवाज़ में) हैलो?
रैस्क्यू वर्कर: हैलो?
तुम कौन हो बेटी?
तुम कैसी हो?
हिंद: (रोते हुए) मैं हिंद हूँ।
मैं अकेली हूँ।
मुझे बहुत डर लग रहा है।
रैस्क्यू वर्कर: हिंद बेटी, डरो मत।
हम तुम्हें बचाने आ रहे हैं।
तुम्हारे साथ और कौन है?
हिंद: (ज़ोर–ज़ोर से रोते हुए) सब मर गए।
मेरे साथ जो थे, सब मर गए।
मैं अकेली हूँ।
मैं अपने अम्मी–अब्बा के पास जाना चाहती हूँ।
रैस्क्यू वर्कर: बेटी, गाड़ी के अंदर ही रहना।
बाहर मत निकलना।
हम तुम्हारे पास पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं।
हिंद: (डरी हुई आवाज़ में) यहाँ टैंक हैं।
बहुत सारे टैंक हैं।
वे मेरे क़रीब आ रहे हैं।
मुझे बचा लो! प्लीज़ मुझे बचा लो!
रैस्क्यू वर्कर: हिंद, हम आ रहे हैं।
तुम हिम्मत रखो।
हिंद: (आवाज़ में तेज़ डर और कँपकँपी) मैंने गोलियों की आवाज़ें सुनी हैं।
मैंने देखा है… मैंने सबको मरते हुए देखा है।
मैं नहीं मरना चाहती।
मेरा ख़्याल रखना।
(इसके बाद ख़ामोशी, फिर कमज़ोर सिसकियाँ)
हिंद: (बहुत ही कमज़ोर आवाज़ में, लगभग फुसफुसाते हुए) मैं तुमसे प्यार करती हूँ।
मुझे अम्मी से मिलाना।
(फ़ोन कट जाता है)
वह तारीख़–साज़ दिन था
जो लिखा लहू इंसानी से तारीख़ के सफ़े पर यहाँ
इस के नीचे भी तारीख़ी तहरीर लिखी जाने वाली है
Lyrics By Firoz Ahmad Firoz
August 30, 2025, 1.10 PM
Bengaluru, All Rights Reserved 2025.